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BRBJ News > ओपीनियन > मुद्दा > चुनावी शोर में अनसुनी रह गईं ये सिसकियां…!!
मुद्दाखास खबरसियासत

चुनावी शोर में अनसुनी रह गईं ये सिसकियां…!!

By BRBJ Desk
Published October 23, 2025
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भोला नाथ 

What's inside ?
टिकट नहीं मिलने की पीड़ा सहने वाले बृज मोहन सिंह अकेले नहींसुरेश रुंगटा : कभी पार्टी को खड़ा करने के लिए चंदा कियाचार दशक से लगे रहे मगर मन मसोस कर रह गएहर किसी को अपनी अलग पीड़ाअब जरा जदयू की तरफ चलेंराजद : चार दशक बाद भी खाली हाथकांग्रेस : वर्षों सेवा के बाद भी पार्टी की तवज्जो नहीं

पटना। बृज मोहन सिंह टिकट की आस लिए दुनिया से चले गए ! दिवाली से ऐन हफ्ता भर पहले। भाजपा के संगठनात्मक जिला सारण पश्चिमी के वह जिलाध्यक्ष थे। दशकों से भाजपा से जुड़े 62 साल के बृज मोहन सिंह कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे थे। बनियापुर से पार्टी के उम्मीदवार बनने के तलबगार…। दिल्ली – पटना की दौड़ लगा रहे थे। तभी उन्हें पता चला कि यहां से केदार सिंह भाजपा के प्रत्याशी होंगे। वही केदार सिंह जो बाहुबली प्रभुनाथ सिंह के भाई हैं। अब यह लांक्षण भाजपा के कर्णधारों को नागवार तो गुजर सकता है, मगर इलाके के लोगों में यह चर्चा आम है कि इसी सदमे में उनकी जान गई। इसे गलत भी मान लें तो भाजपा में इससे किसे इनकार हो सकता है कि अनगिनत कार्यकर्ताओं की तरह दशकों से भाजपा से जुड़े बृज मोहन सिंह इस बार काफी शिद्दत से टिकट हासिल करने के प्रयास में लगे थे। इनकी आस टूटी तो पार्टी में कहीं कोई आवाज में नहीं हुई। चुनावी शोर शराबे के बीच भाजपा, जदयू, कांग्रेस और के अंदर की कुछ ऐसी सिसकियां भी रहीं, जिनकी सदा शायद ही किसी ने सुनीं…!

टिकट नहीं मिलने की पीड़ा सहने वाले बृज मोहन सिंह अकेले नहीं

टिकट नहीं मिलने की पीड़ा सहन करने वालों में बृज मोहन सिंह अकेले नहीं हैं। भाजपा में सुरेश रुंगटा, उषा विद्यार्थी, आशा सिन्हा, सुधीर शर्मा, प्रेम रंजन पटेल, निखिल आनंद, अजय यादव, भागलपुर के दिलीप मिश्रा, सुषमा साहु, अशोक भट्ट, राकेश सिंह, पंकज सिंह, मनीष तिवारी, जैसे कई नाम हैं। विरोध – बगावत न तो इनके जैसे समर्पित कार्यकर्ताओं के सियासी संस्कार में है और न ही इनके बूते की। …बस अंदर ही अंदर घुटते रहे। हर बार के चुनाव से पहले इस बार भी…! दल चाहे कोई भी हो। इनको अफसोस सिर्फ इतना रहा कि दशकों तक ऐसी पार्टी की खिदमत में लगे रहे और बदले में क्या मिला। बड़े दलों से ठगे गए इन लोगों को अब लगता है कि धनबल और मजबूत बैकिंग के बिना कहीं कुछ नहीं हो सकता। ये दोनों होता तो दशकों पहले इनका भी राजयोग बुलंद हो गया होता। अचानक आए नए चेहरे की तरह ये भी मैदान मार लेते, इनका भी सितारा चमकता…! चुपचाप बर्दाश्त करने वाले ऐसे कर्मठ कार्यकर्ताओं के लिए अभी इतना ही कहा जा सकता है …

खामोशियां बेवजह नहीं होतीं, कुछ दर्द आवाज़ छीन लिया करते हैं…!

सुरेश रुंगटा : कभी पार्टी को खड़ा करने के लिए चंदा किया

कुछेक को छोड़ दें तो बाकी आदतन पार्टी में ही बने हैं, मगर, हताश – निराश…! अब सुरेश रुंगटा को ही लें, पिछले 50 साल से वे पार्टी की अहर्निश सेवा में हैं। सब जानते हैं कि एक समय भाजपा जब बिहार में पैर जमा रही थी, तब रुंगटा जैसे लोग ही मारवाड़ी, बनिया और कारोबारी समाज में जाकर उसके कार्यक्रमों के लिए चंदा जुटाते थे। भाजपा की सेवा में तन-मन-धन से लगे रहे खुद रुंगटा की तीन फैक्ट्रियां बंद हो गईं। श्रद्धेय कैलाशपति मिश्र से लेकर सुशील मोदी और अब तक हर बार सिवा आश्वासन के उनको कुछ नहीं मिला। भाजपा की उपेक्षा के अभिशप्त सुरेश रुंगटा तो अब इस नियति के उदाहरण बन चुके हैं। यदि एक-डेढ़ दशक से पार्टी में लगा हुआ कार्यकर्ता यदि टिकट नहीं मिलने पर नाराजगी जताता है या शिकायत करता है, तो उदारण सुरेश रुंगटा का ही दिया जाता है कि जरा उनको भी तो देखिए, अब तक कुछ नहीं मिलने पर भी वे पार्टी की सेवा में लगे हुए हैं। उपेक्षा की टीस झेलने वाले भाजपा समेत अन्य दलों के नेताओं के बारे में भी जरा जानते हैं…!!

चार दशक से लगे रहे मगर मन मसोस कर रह गए

बिहार विधान सभा चुनाव – 2025 से ठीक पहले आई इस बार की दिवाली भी खास रही और महापर्व छठ भी विशेष रहेगा। कई मायनों में सियासी ज्यादा…! कहीं दीप जले, कहीं दिल…! जिनको टिकट मिला वहां दीप, जिनका कटा उनके यहां दिल ही तो जलेंगे…! सिम्बल लेकर उम्मीदवार दिवाली पर लोगों को लुभाने के लिए ‘खास’ जनसंपर्क में लगे रहे। जिनको सिम्बल नहीं मिला, मन मसोस कर रह गए। चार दशक से बतौर भाजपा कार्यकर्ता काम कर रहे दिलीप मिश्रा को ही लें। हर तरह से पार्टी के मदद में लगे रहे। चुनाव आया तो आस बंधी। भागलपुर से टिकट के लिए पटना, दिल्ली दौड़ते रह गए। मगर, इस बार भी उम्मीद पूरी न हो सकी। गत 35 साल से आरएसएस और भाजपा से जुडे रहे अजय यादव ने इस बार पुरजोर तरीके से कुम्हरार पर दावा ठोका था। मगर बाजी मार ले गए नए नेता। पता चला, इनको संगठन के उसी समाज के एक बड़े नेता का आशिर्वाद था।

हर किसी को अपनी अलग पीड़ा

दिलीप मिश्रा और अजय यादव अकेले ऐसे नाम नहीं हैं। प्रेम रंजन पटेल पूरी शिद्दत से सूर्यगढ़ा से चुनाव लड़ने की कोशिश में लगे रहे, इसी दौरान बीमार भी पड़े, मगर कामयाबी नहीं मिली।  उषा विद्यार्थी को मलाल है कि कई साल से वह पालीगंज क्षेत्र में लोगों के बीच काम कर रही थीं। मगर पार्टी ने पहले कुछ नहीं बताया और ऐन चुनाव के समय उनकी सीट एनडीए के दूसरे दल के खाते में चली गई।

आशा सिन्हा को उम्मीद थी कि उनको पार्टी दुबारा दानापुर से उम्मीदवार बनाएगी। मगर, भाग्यशाली रहे रामकृपाल यादव, जो सांसदी में हारे तो अब विधायकी की दौड़ में हैं। निखिल आनंद का भी मनेर से उम्मीदवारी का सपना टूटा। वर्षों तक भाजपा में रहे सुधीर शर्मा की भी अपेक्षा टूटी। अब वे जनसुराज में चले गए हैं।

सुषमा साहु वर्षों निगम पार्षद रहीं, वो भी बिना किसी चुनावी सिम्बल के, मगर उनको कभी मु्ख्य धारा में आने का मौका नहीं मिला। अशोक भट्ट, राकेश सिंह, पंकज सिंह, मनीष तिवारी, जैसे पता नहीं कितने नाम हैं, जो वर्षों से भाजपा में हैं, मगर समकक्षों से रेस में पिछड़ गए। रवीन्द्र यादव भाजपा में इस उम्मीद में आए था कि पार्टी उनको झाझा से लड़ाएगी, मगर … कोशिश बेकार रही।

अब जरा जदयू की तरफ चलें

अब जरा जदयू की तरफ चलते हैं। पार्टी में 35 साल तक लगे रहने के बाद रवीन्द्र कुमार सिंह को एमएलसी में पार्टी ने मौका दिया। मगर, तीन दशक हो गए संजय सिन्हा को पार्टी की सेवा करते हुए, आज तक सचिव (कार्यालय प्रभारी) से आगे नहीं बढ़ सके। छोटू सिंह उर्फ अरविंद सिंह, ओम प्रकाश सिंह ‘सेतु’, डा. मधुरेन्दु पांडेय, अंजुम आरा जैसे कई नाम हैं, जिनकी उम्मीद पूरी नहीं हुई। वीपी मंडल के रिश्तेदार निखिल मंडल भी इसी श्रेणी में हैं। कई बार चर्चा रही किपार्टी निखिल मंडल को तवज्जो दे रही है, मगर बात सिरे नहीं चढ़ी।

राजद : चार दशक बाद भी खाली हाथ

राजद के सभी कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाले अरुण कुमार को न सिर्फ राजद, बल्कि बिहार के सियासी हलके में भला कौन नहीं जानता। वह पिछले 40 साल से राजद के लिए काम कर रहे हैं। मगर, आज तक लालू प्रसाद, राबड़ी देवी, तेजस्वी यादव या अन्य शीर्ष पार्टी जनों की नजर उन पर नहीं पड़ी।

इसी कड़ी में फैय्याज आलम 40 साल से, प्रवक्ता मो. एजाज अली अहमद 34 साल से, बल्ली यादव 30 साल से, मदन शर्मा 30 साल से, सरदार रंजीत सिंह 12 साल से, जैसे कई नाम हैं जो राजद के लिए तन मन धन से लगे हैं, मगर आज तक खाली हाथ हैं। राजद ने बांकीपुर से वैश्य समाज की महिला को सिम्बल दिया, मगर, इसी वर्ग और क्षेत्र से आने वाले अरुण कुमार पर पार्टी की नजर नहीं पड़ी। कारण, शायद अरुण कुमार धनबल में कमजोर हैं।

कांग्रेस : वर्षों सेवा के बाद भी पार्टी की तवज्जो नहीं

कांग्रेस की बात करें तो मधुरेन्द्र सिंह (रामदुलारी सिन्हा के बेटे), आनंद माधव, मधुकांत सिंह, अनिल सिंह (अमरपुर), कमलदेव नारायण शुक्ला, रीता सिंह, खगडिया की रेखा कुमारी, नागेन्द्र पासवान विकल, सुधा मिश्रा, जैसे कई नाम हैं जिन पर वर्षों कांग्रेस की सेवा करने के बाद भी पार्टी की तवज्जो नहीं गई।

मात्र 113 वोट से हारे गजानंद शाही की जगह इस बार बरबीघा से नए उम्मीदवार को टिकट देना कई तरह से चर्चा में है। आनंद माधब ने तो कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को पत्र लिखकर नाराजगी जताई है और पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया है।

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