अपने बारे में :
डेस्टिनी! 24वें जैन तीर्थंकर भगवान महावीर ने 2500 वर्ष पहले कहा था, मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। स्वामी विवेकानंद ने भी 2400 साल बाद 19वीं सदी में यही बात कही।
महात्मा गांधी ने इसे थोड़ा बदला। कहा, मनुष्य को अपने भाग्य का निर्माता मानना आंशिक सत्य है। वह अपनी नीयति तभी बना सकता है, जब महानशक्ति (Great Power) उसकी मदद करे।
जाने – माने अमेरिकी लेखक हेनरी मिलर (1891-1980) ने कहा, हर आदमी की अपनी नीयति होती है, अति आवश्यक है कि वह उसका पीछा करे, बिना यह परवाह किए कि उसकी नियति उसे कहां ले जाती है।
… इसी कड़ी में, प्रख्यात अमेरिकी लेखक मारियो पूजो की उक्ति! अपने विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘गॉडफादर’ (1969) में उन्होंने लिखा, एवरी मैन हैज बट वन डेस्टिनी…! तर्जुमा, हर आदमी की एक ही नीयति होती है! आज के युग में जब भी भाग्य, प्रारब्ध, किस्मत, तकदीर या नीयति की बात आती है, तो ये उक्तियां खूब – खूब कोट की जाती हैं।
मैं अपने भाग्य को लेकर इन महापुरुषों की कही गई उक्तियों पर विचार करता हूं तो मारियो पूजो के करीब पाता हूं। वैसे, गौर करें तो महात्मा गांधी, हेनरी मिलर और मारियो पूजा की उक्ति का सार एक ही है। हम भाग्य और भगवान पर विश्वास करते हैं तो यह प्रबल सत्य है कि हर इंसान अपना प्रारब्ध साथ लेकर धरती पर आता है। ऐसे कई उदाहरण आपको मिल जाएंगे।
पिताजी सरकारी नौकरी में थे। वैसे तो उनके और भी तबादले हुए, मगर मेरे होश में उनका यह दूसरा तबादला था, …सूर्यपूरा एस्टेट में! पहले लगा कि कहां निजट्ट देहात में आ गया! बाद में पता चला कि यह क्या जगह थी!
तब सूर्यपूरा का राज राजेश्वरी हाई स्कूल न सिर्फ पूरे शाहाबाद (बाद का रोहतास) जिला इलाका, बल्कि बिहार भर में मशहूर था। इसे राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह ने अपने पिता राज राजेश्वरी सिंह ‘प्यारे’ की याद में बनवाया था। वही राधिकारमण प्रसाद सिंह, जो अपने उपन्यास चुंबन और चांटा, राम-रहीम और कहानी दरिद्र नारायण जैसी कालजयी कृतियों और विशिष्ट लेखन शैली के लिए जाने जाते थे।
सन् 1930 में स्थापित काफी बड़े भू भाग में पसरा यह स्कूल उस समय जापानी आर्किटेक्ट द्वारा डिजाइन किया गया था। भव्य मेन बिल्डिंग, बड़े क्लासरूम, सेंटर में विशाल हॉल, दाएं-बाएं दुमंजिले साइंस ब्लाक, बड़ा खेल मैदान और चार हॉस्टल! तब एक से एक विद्वान शिक्षक इस स्कूल की गरिगा बढ़ाते थे।
आप कहेंगे कि कहां मैं भाग्य, सूर्यपूरा और वहां के हाईस्कूल का जिक्र ले बैठा। लेकिन, काफी विनम्रता से मैं यह अर्ज करना चाहता हूं कि साहित्यकार राधिका रमण प्रसाद सिंह की रचनाओं और उनके इस स्कूल के विद्वान शिक्षकों का मुझपर गहरा असर रहा। यूं कहें कि सूर्यपूरा आगमन मेरे जीवन का एक टर्निंग प्वायंट रहा। आठवीं से 11वीं तक के चार साल में मैंने इतनी साहित्यिक पुस्तकें और उपन्यास पढ़े कि उसकी कोई गिनती नहीं रहा। कोर्स के इतर की पुस्तकों में डूबे रहने के बावजूद मैंने वहां से जब मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की तो मेरे पिताजी चकित रह गए।
नहर किनारे बसे सूर्यपूरा की उर्वर मिट्टी और आबोहवा का ही यह असर था कि मेरी सोच को एक आकार या कहें दिशा मिलनी शुरू हुई। इसे स्वीकार करने में मुझे गर्व महसूस होता है। देखें तो मेरी नीयति सूर्यपूरा से आगे भी चाहे-अनचाहे अपनी तय लकीर पर उत्तरोत्तर बढ़ती रही। किस्मत के हाथों मजबूर मैं तो बस उसे फालो करता रहा। आगे सासाराम और फिर पटना में उच्च शिक्षा हुई। उस दौरान भी पाठ्यक्रम की किताबों से इतर की पुस्तकों से मेरा प्रेम बदस्तूर बना रहा।
यह सत्य मानने में मुझे कोई गुरेज नहीं कि सरकारों के बदलने के साथ ही सच परोसने का तथ्य और तरीका भी बदलता रहता है। आज भी यही हो रहा है। यह सोच दिमाग को मथता रहा कि देश – समाज और लोगों तक सच, सच के रूप में ही पहुंचे। मगर, कैसे?? काफी पढ़ – सुन रखा था…, जब तोप मुकाबिल हो, अखबार निकालो! … और पत्रकार बनने का ख्याल आया।
तकदीर का मारा मैं पटना से दिल्ली गया। वहां देश के टॉप जन संचार संस्थान – इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन (IIMC) में दाखिला मिल गया। नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) कैम्पस के इस संस्थान की बात ही निराली थी। वहां से पत्रकारिता का कोर्स किया। फिर इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के समाचार पत्र ‘जनसत्ता’ से जुड़ा। तब राजनेता – अफसरों में जनसत्ता का अलग क्रेज था। वहां प्रभाष जोशी, बनवारीजी, राम बहादुर राय, कुमार आनंद, आलोक तोमर, सुशील कुमार सिंह और अनंत मित्तल जैसे दिग्गजों का हाथ सिर पर मिला। दीवार के उस पार से अरुण शौरी (इंडियन एक्सप्रेस) और पड़ोस के राजेंद्र माथुर (NBT के प्रधान संपादक) से भी आशीर्वाद मिलता रहा। इनके मार्गदर्शन समझने की कोशिश की कि बरास्ते पत्रकारिता लोगों तक सच कैसे पहुंचाया जाए।
वहां के बाद प्रमुख दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में पटना आना हुआ। आपको साफ कर दूं कि ऐसा नहीं है कि ‘हिन्दुस्तान’ कोई आज का बिहार का नम्बर – 1 अखबार है। लगभग ढाई दशक पूर्व जब मैं इससे जुड़ा तो उस वक्त भी यह सूबे का शीर्ष अखबार था।
पटना ‘हिन्दुस्तान’ में उप संपादक से शुरू हुआ मेरा सफर बिहार के राजनीतिक संपादक तक पहुंचा। इस सफर के खट्टे-मीठे अनुभवों, सियासत, उठापटक, साजिशों और हाकिम-हुक्कामों में क्रेडिट लूटने की होड़ पर चर्चा कभी फुर्सत में करूंगा। मेरा दावा है कि जो यथार्थ मैंने भोगा, उसका अनुभव किसी रोचक कहानी या रिपोर्ताज से कम दिलचस्प नहीं है। बिल्कुल हिन्दी सिनेमा की लैन्डमार्क ‌फिल्म ‘शोले’ के उस डॉयलग जैसा, जिसमें अपना वीरू रामगढ़ वालों से कहता है, …. ये मत पूछो गांव वालों, मेरी स्टोरी में ट्रेजेडी भी है, इमोशन भी है और ड्रामा भी!! इस सफर में मैंने बड़े – बड़े दरख्तों के तथाकथित ‘बड़प्पन’ को बहुत करीब से जीया! …उसे जानने – महसूस करने के लिए फिलहाल थोड़ा सब्र कीजिए…!
मेरे अनुज और मित्र रवीन्द्र नाथ तिवारी को पता नहीं क्यों इस नाचीज की लेखनी अच्छी लगती है। उनकी कही एक बात अक्सर मुझे याद आती है, …सर, आप बिहार के इकलौते पत्रकार हैं, जिसने प्रभाष जोशी के साथ काम किया है। मैंने कहा, बड़े भाई सुरेन्द्र किशोर जी (अब पद्मश्री) भी तो हैं। तिवारीजी का जवाब, …वह पटना में जनसत्ता के प्रतिनिधि थे, आपने दिल्ली में प्रभाष जोशी के सानिन्ध्य में रिपोर्टिंग की है। उनके इस जवाब पर मैं निरुत्तर रह गया था।
….तो जनाब बड़े मीडिया संस्थान से अब मेरा नाता खत्म हो चुका है। कुछ मित्रों ने नसीहत दी, ‘रिक्वेस्ट’ करके नौकरी कुछ बढ़वा लो। मैंने कहा, दोहरी जिन्दगी और नहीं जी जाती! अब बस! मेरा यह भी मानना या कहें तजुर्बा है कि एक्सटेंशन वाला कोई शख्स चाहे वह कर्मी हो या हाकिम, अपने काम, संस्थान और सहकर्मियों से न्याय नहीं कर सकता।
इसके साथ ही, यह यक्ष प्रश्न भी उठ खड़ा हुआ कि फिर करोगे क्या भोला नाथ…! काफी विचार के बाद लगा कि वही जो इतने सालों से नीयति मुझसे करवाती रही… पत्रकारिता! और क्या? लेकिन, इस बार कुछ अपनी कोशिश की जाए। छोटा हो, मामूली हो, लेकिन, अपना हो। मुख्यधारा की मीडिया यदि किसी लोभ या डर में हो, देखकर ना देखे, सुनकर ना सुने, तब सच के लिए किसी को तो बोलना होगा। कहीं से तो आवाज़ उठाने का सिलसिला शुरू हो। …ताकि सच के बरअक्स देश-समाज-लोग कर सकें सही फैसला….! यह एक बड़ा संकल्प था। लेकिन, ले लिया तो ले लिया… और इसी कड़ी में शुरू हुआ… बीआरबीजे न्यूज…. !!! आपका सवाल होगा, बड़ा अजीब नाम है, तो यह किस्सा भी फिर कभी…! नाचीज की दिली कोशिश होगी कि पत्रकारिता के अलग – अलग आयामों के जरिए आप तक सच्चाई पहुंचा सकूं। इस काम में मेरी मदद आईआईएमसी, दिल्ली के ही कुछ साथी कर रहे हैं। पर उनके नाम का खुलासा अभी नहीं, समय आने पर…!!
किस्सा काफी लम्बा हो गया है। इसे अपने सबसे पसंदीदा शायर दुष्यंत की दो शेर से खत्म करता हूं,
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बे-क़रार हूं आवाज़ में असर के लिए

और,

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए

धन्यवाद….!!
– भोला नाथ