गठबंधन में कुर्बानी तो ठीक, पर कांग्रेस के साथ जो हुआ उसे क्या कहेंगे…‘जिबह’!
भोला नाथ
पटना। देश अभी जिस तरह गठबंधन के सियासी भंवर में उलझा है, उसमें चुनावी रणनीति बनाते समय ‘कुर्बानी’ आम है। अक्सर एक दल गठबंधन के सहयोगी दलों के लिए कुर्बानी या कहें, कोई सीट छोड़ते हैं तो बदले में दूसरा लेते हैं या कई बार नहीं भी लेते हैं। बिहार में सत्तारूढ़ एनडीए में यह देखा गया कि किसी दल की कोई सीट कटी तो बदले में दूसरी सीट भी मिली। किसी को नहीं भी मिली। मगर, विपक्षी महाठबंधन में कांग्रेस के मजबूत दावे वाली सीटों को जिस तरह राजद ने उससे छीन लिया गया, उसे कर्बानी की जगह शायद ‘जिबह’ का नाम देना ज्यादा उपयुक्त रहेगा।
छंटुआ माल से करना पड़ा संतोष
कहने को तो कांग्रेस को बिहार में 9 सीटें मिली हैं। मगर, कहा जाए तो उसे छंटुआ माल से संतोष करना पड़ा है। किशनगंज कांग्रेस की सीटिंग सीट है। पिछली बार एक मात्र यही सीट है जिसे विपक्षी गठबंधन जीत पाया था। कटिहार भी ठीक है। चर्चा है कि तारिक अनवर के लिए यह सीट राजद ने बडी मुश्किल से ढील दी है। जहां तक सासाराम की बात है तो यह भी चलेगा। पहले यहां बाबूजी (स्वर्गीय जगजीवन राम) और बाद में उनकी बेटी मीरा कुमार की दावेदारी यहां रहती थी। मगर, मीरा कुमार ने भी यहां से लड़ने से मना कर दिया है। वह यहां से दो बार हार चुकी हैं।
मजबूत दावे वाली सीटों पर राजद का कब्जा
इसके अलावा जो छह सीटें बचती हैं, उनके बारे में कांग्रेसी ही विश्लेषण करें तो बेहतर है। कांग्रेस की जिन सीटों पर स्वाभाविक दावेदारी बनती है और जिनको वह अपने लिए मांग रही थी, उन सीटों को राजद ने पहले ही अपने कब्जे में कर लिया। पप्पू यादव पर काफी कुछ कहा जा चुका है। मगर, पूर्णिया एक ऐसी सीट थी, जिसके लिए कांग्रेस को अड़ना चाहिए था। आखिर आप जाप का विलय कराकर पप्पू को कांग्रेस में लाए थे। सभी वहां से पप्पू की स्वाभाविक दावेदारी भी मानते थे, मगर सीट कांग्रेस के हाथ से रेत की मानिंद फिसल गई और कांग्रेस जो राष्ट्रीय पार्टी का दम्भ भरती है, कुछ नहीं कर सकी। कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व की चुप्पी पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है। अब पप्पू के अगले कदम पर सबकी निगाह टिकी है। उनका कहना है कि वह सीमांचल और कोसी क्षेत्र में कांग्रेस को जिताकर राहुल गांधी को पीएम बनाएंगे। यह दावा अतिशयोक्तिपूर्ण लगता है। पर, देखना दिलचस्प होगा कि पप्पू यादव पूर्णिया को लेकर क्या निर्णय करते हैं।
सीटों के बंटवारे पर कई सवाल उठ रहे
इसी तरह औरंगाबाद में यदि कांग्रेस को मिलती और निखिल कुमार वहां से उम्मीदवार होते तो मुकाबला कांटे का होता। उधर, मधुबनी सीट के लिए कांग्रेस के शकील अहमद इच्छुक थे। मधुबनी का सामाजिक ताना-बाना कुछ इस तरह का है कि कांग्रेस यहां सुविधाजनक स्थिति में होती। अररिया, सुपौल और झंझारपुर में भी कांग्रेस बेहतर मुकाबले की स्थिति में होती। मगर, जिस तरह से सीटों का बंटवारा महागठबंधन में हुआ है, उससे साफ है कि कई सीटें उसने प्लेट में सजाकर प्रतिद्वंदी को सौंप दिए हैं। महागठबंधन में सीटों के बंटवारे पर और भी कई सवाल उठ रहे हैं।